बिहार चुनाव: जंगलराज का मुद्दा क्यों बना हुआ है प्रासंगिक?
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण का प्रचार खत्म हो चुका है। 6 नवंबर को 18 जिलों की 121 सीटों और 11 नवंबर को 20 जिलों की 122 विधानसभा सीटों पर मतदान होगा। इस बार चुनाव में NDA (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) ने ‘जंगलराज’ को सबसे बड़ा मुद्दा बना लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक सुर में ‘जंगलराज’ की बात कर रहे हैं, जबकि महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव नौकरी, विकास और गुंडा राज की बातें कर रहे हैं।
जंगलराज का मुद्दा: 20 साल बाद भी क्यों है प्रासंगिक?
यह स्थिति तब है जब लालू-राबड़ी का शासन समाप्त हुए 20 साल हो चुके हैं। फिर भी NDA इस मुद्दे को चुनावी मंच पर ले कर आ रही है। सवाल उठता है कि 20 साल बाद भी NDA क्यों ‘जंगलराज’ को चुनावी मुद्दा बनाए हुए है? क्या इसका तेजस्वी यादव के चुनाव पर असर होगा? इस विषय पर गहन चर्चा की जा रही है।
NDA की रणनीति और जंगलराज का उपयोग
चुनाव प्रचार में NDA के हर नेता, चाहे वह प्रधानमंत्री मोदी हों या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, सभी ‘जंगलराज’ को मुद्दा बना रहे हैं। महागठबंधन नीतीश सरकार के लिए ‘गुंडा राज’ का उपयोग कर रही है।
- 24 अक्टूबर को PM मोदी ने समस्तीपुर और बेगूसराय में अपनी पहली चुनावी रैली में ‘जंगलराज’ शब्द का 30 बार इस्तेमाल किया। उन्होंने नारा दिया, ‘फिर एक बार NDA सरकार, फिर एक बार सुशासन सरकार, जंगलराज वालों को दूर रखेगा बिहार।’
- नीतीश कुमार ने कहा कि पहले के समय में शाम के बाद कोई घर के बाहर नहीं निकलता था। अब बिहार में विकास का काम लगातार हो रहा है।
- गृह मंत्री अमित शाह ने भी सवाल उठाया कि बिहार में विकास चाहिए या जंगलराज, जिस पर भीड़ ने विकास के पक्ष में जवाब दिया।
जंगलराज का उद्भव और उसके सामाजिक प्रभाव
‘जंगलराज’ शब्द का पहला इस्तेमाल 1997 में हुआ था, जब लालू यादव चारा घोटाले के आरोप में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे चुके थे और राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। पटना में जलभराव की स्थिति के बाद पटना हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ‘पटना की स्थिति जंगलराज वाली हो गई है।’ इस टिप्पणी को भाजपा और समता पार्टी ने लालू-राबड़ी शासन के प्रतीक के तौर पर प्रचारित किया।
लालू-राबड़ी काल (1990-2005) में हत्या, किडनैपिंग और जातीय हिंसा का दौर चला। आंकड़ों के अनुसार, 1991-2001 के बीच 58 नरसंहार हुए, जिनमें 566 लोग मारे गए। जब नीतीश कुमार 2006 में मुख्यमंत्री बने, तब इन अपराधों में कमी आई। तेजस्वी यादव ने भी 20 साल में 60,000 मर्डर होने का दावा किया है।
NDA की रणनीतियों के पीछे के कारण
विशेषज्ञों का मानना है कि NDA के जंगलराज के नैरेटिव को आगे बढ़ाने के पीछे तीन प्रमुख कारण हैं।
- एंटी इनकंबेंसी को दूर करना: राजनीतिक विश्लेषक सज्जन कुमार सिंह के अनुसार, नीतीश कुमार और भाजपा 20 साल से सत्ता में हैं, और इस लंबे समय के कारण एंटी इनकंबेंसी तो होगी। इसे दूर करने के लिए NDA जंगलराज को भुनाने की कोशिश कर रही है।
- महिला वोटरों को गोलबंद करना: महिला वोटरों की लामबंदी NDA के पक्ष में रही है। सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है, और घर की औरतें जंगलराज के दौर को याद करती हैं।
- कार्यकर्ताओं को रिचार्ज करना: चुनाव में गहमागहमी का माहौल नहीं है, इसलिए NDA जंगलराज की याद दिलाकर कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की कोशिश कर रही है।
तेजस्वी यादव की चुनौतियाँ
तेजस्वी यादव का कहना है कि उनकी पार्टी RJD बाहुबालियों को टिकट देने से बचने में असफल रही है। RJD ने 143 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है, जिसमें 9 कैंडिडेट बाहुबालियों या उनके परिवार से हैं। इससे यह संदेश जाता है कि RJD पुरानी राजनीति से बाहर नहीं निकल पा रही है।
इसके अलावा, तेजस्वी यादव का सामाजिक आधार भी लालू-राबड़ी वाला ही बना हुआ है। राजनीतिक विश्लेषक अभिरंजन कुमार का कहना है कि तेजस्वी यादव ने 143 में से 70 कैंडिडेट मुस्लिम-यादव समीकरण पर आधारित रखे हैं। इससे उनकी छवि पर असर होगा।
जंगलराज का तेजस्वी यादव के चुनाव पर प्रभाव
विश्लेषकों का मानना है कि जंगलराज का मुद्दा तेजस्वी यादव के चुनाव पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। बिहार में विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग हैं, और जंगलराज के दौरान एक जाति विशेष की उदंडता के आरोपों से अन्य जातियों के वोटर NDA के पक्ष में गोलबंद हो सकते हैं।
सीनियर जर्नलिस्ट मणिकांत ठाकुर का कहना है कि जंगलराज एक ऐसा मुद्दा है, जिसमें शासन व्यवस्था की सारी कमजोरियाँ हैं। NDA इसे छोड़ने की कोशिश नहीं कर रही है, क्योंकि यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका जवाब तेजस्वी यादव के पास नहीं है।
निष्कर्ष
बिहार चुनाव में जंगलराज का मुद्दा एक बार फिर से महत्वपूर्ण बन गया है। NDA इसे अपने चुनावी अभियान का केंद्रीय बिंदु बना रही है, जबकि तेजस्वी यादव को इससे निपटने के लिए कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार के चुनाव में कौन सा पक्ष जीतता है और बिहार की राजनीति में क्या बदलाव आते हैं।


























